Sanskrit shlok-अब आपके पास संस्कृत श्लोकों को समझने का एक नया माध्यम है, “संस्कृत श्लोक अर्थ सहित”। यह आपको संस्कृती, धार्मिकता और ज्ञान के समृद्ध जगत में ले जाएगा, जहां आप संस्कृत भाषा के महत्वपूर्ण श्लोकों के अर्थों और संदेशों की खोज कर सकेंगे। हम इस लेख में संस्कृत श्लोकों के आध्यात्मिक और दार्शनिक अर्थों को समझाने में मदद करेंगे, जिससे आप आत्मविकास कर सकेंगे और अपने जीवन को सजीव, सार्थक और आदर्शपूर्ण बना सकेंगे। आइए, हम मिलकर संस्कृत श्लोकों की रहस्यमयी दुनिया की खोज करें और उनके संदेशों को समझें।
आइए, हम संस्कृत श्लोकों के रहस्यमय और श्रेष्ठतम विश्व की यात्रा पर निकलें. यह एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर है, जो हमें ज्ञान, प्रेरणा और नेतृत्व की महत्वपूर्ण मुद्राएँ प्रदान करता है. इस लेख में हम आपको संस्कृत श्लोकों की अद्भुतता और उनके महत्वपूर्ण सन्देशों को खोजने में मदद करेंगे।
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Sanskrit shlok अर्थ सहित
संस्कृत श्लोक | संस्कृत श्लोक अर्थ |
आयुषः क्षण एकोऽपि सर्वरत्नैर्न न लभ्यते। नीयते स वृथा येन प्रमादः सुमहानहो ॥ | अर्थात् : सभी कीमती रत्नों से कीमती जीवन है जिसका एक क्षण भी वापस नहीं पाया जा सकता है। इसलिए इसे फालतू के कार्यों में खर्च करना बहुत बड़ी गलती है। |
काकचेष्टो बकध्यानी श्वाननिद्रस्तथैव च। अल्पाहारी गृहत्यागी, विद्यार्थी पञ्चलक्षणः॥ | अर्थ: कोई जैसी चेष्टा अगले जैसा ध्यान कुत्ते जैसी निंद्रा तथा कम खाने वाला और ग्रह का त्याग करने वाला यही विद्यार्थी के पांच लक्षण है। |
बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः । श्रुतवानपि मूर्खोऽसौ यो धर्मविमुखो जनः ॥ | जो व्यक्ति कर्मठ नहीं हैं अपना धर्म नहीं निभाता वो शक्तिशाली होते हुए भी निर्बल हैं, धनी होते हुए भी गरीब हैं और पढ़े लिखे होते हुये भी अज्ञानी हैं । |
विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन !स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते !! | अर्थ: राजा और विद्वान में कभी तुलना नहीं हो सकती क्योंकि राजा अपने राज्य में पूजा जाता है वही विद्वान जहां जाता है वहां पूजनीय है। |
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ | जिनका हृदय बड़ा होता है, उनके लिए पूरी धरती ही परिवार होती है और जिनका हृदय छोटा है, उनकी सोच वह यह अपना है, वह पराया है की होती है। |
अलसस्य कुतः विद्या अविद्यस्य कुतः धनम्। अधनस्य कुतः मित्रम् अमित्रस्य कुतः सुखम् ॥ | आलसी व्यक्ति को विद्या कहां, मुर्ख और अनपढ़ और निर्धन व्यक्ति को मित्र कहां, अमित्र को सुख कहां। |
यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् । एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ॥ | रथ कभी एक पहिये पर नहीं चल सकता हैं उसी प्रकार पुरुषार्थ विहीन व्यक्ति का भाग्य सिद्ध नहीं होता । |
जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं, मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति । चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं, सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ॥ | अच्छी संगति जीवन का आधार हैं अगर अच्छे मित्र साथ हैं तो मुर्ख भी ज्ञानी बन जाता हैं झूठ बोलने वाला सच बोलने लगता हैं, अच्छी संगति से मान प्रतिष्ठा बढ़ती हैं पापी दोषमुक्त हो जाता हैं । मिजाज खुश रहने लगता हैं और यश सभी दिशाओं में फैलता हैं, मनुष्य का कौन सा भला नहीं होता । |
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ | तेरा मेरा करने वाले लोगो की सोच उन्हें बहुत कम देती हैं उन्हें छोटा बना देती हैं जबकि जो व्यक्ति सभी का हित सोचते हैं उदार चरित्र के हैं पूरा संसार ही उसका परिवार होता हैं । |
पुस्तकस्था तु या विद्या, परहस्तगतं च धनम् । कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ॥ | किताबों मे छपा अक्षर ज्ञान एवम दूसरों को दिया धन यह दोनों मुसीबत में कभी काम नहीं आते । |
आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण, लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्। दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना, छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्॥ | अर्थात् : दुर्जन की मित्रता शुरुआत में बड़ी अच्छी होती है और क्रमशः कम होने वाली होती है। सज्जन व्यक्ति की मित्रता पहले कम और बाद में बढ़ने वाली होती है। इस प्रकार से दिन के पूर्वार्ध और परार्ध में अलग-अलग दिखने वाली छाया के जैसी दुर्जन और सज्जनों व्यक्तियों की मित्रता होती है। |
परान्नं च परद्रव्यं तथैव च प्रतिग्रहम्। परस्त्रीं परनिन्दां च मनसा अपि विवर्जयेत।। | अर्थात् : पराया अन्न, पराया धन, दान, पराई स्त्री और दूसरे की निंदा, इनकी इच्छा मनुष्य को कभी नहीं करनी चाहिए |
प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।तस्मात् प्रियं हि वक्तव्यं वचने का दरिद्रता॥ | अर्थ: प्रिय वचन बोलने से सब जन संतुष्ट होते हैं इसलिए प्रिय वचन ही बोले। प्रिया वचन बोलने से कहां दरिद्रता आती अर्थात प्रवचन बोलने से कहीं नहीं मिलता नहीं आती तो प्रिया वचन बोले। |
यस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् ! तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसियस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् !तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि।। | अर्थ: वह व्यक्ति जो भिन्न-भिन्न देशों में भ्रमण करता है एवं विद्वानों की सेवा करता है ऐसे व्यक्ति की बुद्धि उसी तरह बढ़ती है जैसे तेल की बूंद पानी में फैल जाती है। |
न चोरहार्य न राजहार्य न भ्रतृभाज्यं न च भारकारि !व्यये कृते वर्धति एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।। | अर्थ: जिसे ना चोर चुरा सकता है, ना ही राजा छीन सकता है, ना ही इसे संभालना मुश्किल है, नाही भाइयों में बंटवारा हो सकता है, यह खर्च करने से भरने वाला धन विद्या है जो सर्वश्रेष्ठ है। |
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् !वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः।। | अर्थ: विवेक में ना रहना सबसे बड़ा दुर्भाग्य है इसलिए बिना सोचे समझे कोई काम नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति सोच समझकर कार्य करता है मां लक्ष्मी स्वयं उसका चुनाव करती है। |
दारिद्रय रोग दुःखानि बंधन व्यसनानि च।आत्मापराध वृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम्। | अर्थ: दरिद्र रोग दुख बंधन और बताएं यह आत्मा रूपी वृक्ष के अपराध का फल है जिसका उपभोग मनुष्य को करना ही पड़ता है। |
अनेकशास्त्रं बहुवेदितव्यम्, अल्पश्च कालो बहवश्च विघ्ना:। यत् सारभूतं तदुपासितव्यं, हंसो यथा क्षीरमिवाम्भुमध्यात्॥ | अर्थात् : संसार में अनेक शास्त्र, वेद है, बहुत जानने को है लेकिन समय बहुत कम है और विद्या बहुत अधिक है। अतः जो सारभूत है उसका ही सेवन करना चाहिए जैसे हंस जल और दूध में से दूध को ग्रहण कर लेता है |
न ही कश्चित् विजानाति किं कस्य श्वो भविष्यति। अतः श्वः करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान्॥ | अर्थात् : किसी को नहीं पता कि कल क्या होगा इसलिए जो भी कार्य करना है आज ही कर ले यही बुद्धिमान इंसान की निशानी |
आपदामापन्तीनां हितोऽप्यायाति हेतुताम् । मातृजङ्घा हि वत्सस्य स्तम्भीभवति बन्धने ॥ | अर्थात : जब विपत्तियां आने को होती हैं, तो हितकारी भी उनमें कारण बन जाता है। बछड़े को बांधने मे माँ की जांघ ही खम्भे का काम करती है। |
विद्या पर संस्कृत अर्थ सहित हिंदी में
विद्या पर संस्कृत | हिंदी अर्थ |
विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्। पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम्।। | विद्या हमें विनम्रता प्रदान करने वाली होती है। विनम्रता से योग्यता प्राप्त होती है। तथा योग्यता से हमें धन की प्राप्त होती है । और इस धन से हमें धर्म के कार्य करने की प्रेरणा मिलती है जिससे हम सुखी रहते हैं। |
गुरुशुश्रूषया विद्या पुष्कलेन धनेन वा । अथ वा विद्यया विद्या चतुर्थो नोपलभ्यते ॥ | गुरु की सेवा करके, अधिक धन देकर, या विद्या के बदले में विद्या, इन तीन माध्यमों से ही विद्या प्राप्त की जा सकती है। विद्या प्राप्त करने का कोई चौथा उपाय नहीं होता है। |
विद्याविनयोपेतो हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य । कांचनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानन्दम् ॥ | विद्यावान और विनयी पुरुष किस मनुष्य का चित्त हरण नहि करता ? सुवर्ण और मणि का संयोग किसकी आँखों को सुख नहि देता |
माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः । न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा॥ | जो अपने बालक को पढाते नहि, ऐसी माता शत्रु समान और पित वैरी है; क्यों कि हंसो के बीच बगुले की भाँति, ऐसा मनुष्य विद्वानों की सभा में शोभा नहि देता ! |
विद्याविनयोपेतो हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य। कांचनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानन्दम्।। | किस आदमी का दिमाग एक विद्वान और विनम्र आदमी को नहीं लूटता है? सोना और रत्न का संयोग किसकी आंखों को सुख नहीं देता? |